Monday, July 8, 2019

पुलिस सबकी पुलिस का कौन ?


उल्लेखनीय है कि देश की सबसे बड़ी सिविल पुलिस के पास 82 साल से अपना कोई मुख्यालय नहीं था। आज का दिन उप्र पुलिस के लिए बड़ा दिन है, जब उसे अपना मुख्यालय मिला है। करीब 40178 वर्ग मीटर में फैले पुलिस मुख्यालय भवन को सिग्नेचर बिल्डिंग का नाम दिया गया है। ऐसे में देश की आर्थिक,प्रसासनिक व न्यायिक व्यवस्था के लिए पुलिस रिफॉर्म का होना जरूरी।     
                               

पुलिस बल भारतीय पुलिस अधिनियम १८६१ के तहत ही कार्य कर रही है। पुलिस में राजनीतिक दखल इतना अधिक बढ़ गया है की पुलिस संवैधानिक कम राजनैतिक अधिक दिखाई देती है।लोकतान्त्रिक व्यवस्था में कानून और राज्यव्यवस्था के सफल संचालन में पुलिस प्रशासन की सफल भूमिका होती है,मगर यह तभी सभव है जब पुलिस महकमे के सभी व्यक्ति अपने कर्तब्यों तथा अधिकारों को भली-भांति समझकर उनका उचित ढंग से निर्हवन करें।यह सच है कि पुलिस बलों को कानून के दायरे में रहकर ही कार्य करना परता है, मगर इन नियम कानून का पता क्या प्रत्येक पुलिसबल को हैं?,क्या पुलिस बल कार्य करने के लिए स्वतंत्र है?,क्या पुलिस समय के साथ अपडेट है ?,क्या पुलिस विभाग को और भी विभागों के अनुरूप सुख सुविधाएं प्राप्त है ?,ऐसे अनेकों प्रश्न है जो पिछले कई सालों से या कहे आज़ादी के बाद से ही बनें हुए है ,जिसका ७१ सालों में किसी भी सरकार ने सुध नही ली जबकि यही एक ऐसा विभाग है जिसपर पूरे सासन व्यवस्था को सुचारू रूप देने की जिम्मेदारी रहती है ।आम जनता की जिम्मेदारी जिसमें सुरक्षा ,राजस्व,प्राकृतिक आपदा ,आपसी सद्भाव आदि आदि विषयों की जिम्मेदारी ,नेताओं के जूते साफ करने(अपवाद) से लेकर उनके खाने ,पीने(अपवाद),सुरक्षा आदि की जिम्मेदारी ।देश के सुरक्षा की जिम्मेदारी बहुत सी ऐसी जिम्मेदारियां है जो पुलिस विभाग को दी गयी है ।जबकि सुविधा के रूप में पुलिस विभाग के लोगों को ८*८का रूम रहने के लिए ,जीवन यापन के लिए कांस्टेबल स्तर पर ५०२० का मूल व २१६००भत्ता सहित बेतन(अलग -अलग राज्यों में अलग -अलग बेतन हो सकता है) मिलता है अब उसमें एक परिवार खायेगा क्या निचोड़ेगा क्या ।सासन द्वारा पुलिस विभाग को भ्रस्टाचार करने के लिए मज़बूर किया जाता रहा है जिसको हम भलीभांति समझ सकते है ।उदाहरण के रूप में ले तो उत्तर प्रदेश के पुलिसकर्मियों की कम संख्या का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रदेश में 1192 नागरिकों की आबादी पर एक पुलिसकर्मी है जबकि मंत्रालय द्वारा 596 की आबादी पर एक पुलिसकर्मी को नियुक्त करने के आदेश है।  इन्स्पेक्टर और सब इंस्पेक्टरों की भारी कमी हत्याओं और अन्य अपराधों के न ख़त्म होने वाले दौर के बीच प्रदेश पुलिस के ताजा आंकड़े चौंकाते है।  प्रदेश के शहरी  इलाकों में थानों की संख्या ग्रामीण  इलाकों में थानों की संख्या से आधी से भी कम है।  वर्ष 2016 जनवरी तक उत्तर प्रदेश में कुल 1528 थाने थे जिनमे 1023 थाने ग्रामीण इलाकों में और 440 थाने शहरी इलाकों में थे ,आईपीएस, पीपीएस रैंक के अधिकारियों से इतर प्रदेश पुलिस के पास सब इन्स्पेक्टर रैंक के स्वीकृत 19,545 पदों के सापेक्ष केवल 16,440 सब इन्स्पेक्टर हैं,वही 2753 इंस्पेक्टरों के सापेक्ष महज 1899 पद ही भरे हुए हैं।  दुखद यह है कि इंटेलिजेंस विभाग में अपर पुलिस अधीक्षक रैंक के 59 पदों की स्वीकृति है लेकिन केवल 34 पद ही भरे जा सके हैं।   

संख्या बल की कमी से जूझ रहा एसटीएफ  मौजूदा स्थिति में यूपी एसटीएफ भी संख्या बल की भारी कमी से जूझ रही है।  सीधे कहा जाए तो हाल है उससे साफ़ कहा जा सकता है कि  उत्तर प्रदेश आतंकी घटनाओं से मुकाबले के लिए भी कत्तई तैयार नहीं दिखता है। यूपी एसटीऍफ़ में एडिशनल एसपी रैंक के 19 पदों के सापेक्ष महज 8 पदों पर ही नियुक्तियां हुई हैं।  एसटीऍफ़ में कुल स्वीकृत 417 पदों की संख्या के सापेक्ष 265 पदों पर ही भर्तियाँ हुई है। गौरतलब है कि प्रदेश में 2014-15 के दौरान तक़रीबन 37 हजार पुलिसकर्मियों की भर्ती हुई है उसके बाद 2018 में भी पुलिस भर्ती हुई पर अभी भी प्रत्तेक थानों पर संख्या बल की बड़ी कमी है ।

पुलिसिंग सुविधाओं के नाम पर भी उत्तर प्रदेश के पुलिसकर्मियों को पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध नहीं है । गृह मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि प्रदेश के 45 से 47 फीसदी पुलिसकर्मी अपने परिवार को दी गई आवासीय सुविधा से खुश नहीं हैं।  यह दिलचस्प आंकडा है कि लगभग पौने दो लाख पुलिसकर्मियों के सापेक्ष यूपी पुलिस के पास ,परिवार के साथ रहने के लिए बनाए आवासों की संख्या महज 66 हजार है।  प्रदेश पुलिस की बदहाली का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज भी प्रदेश में 78 पुलिस स्टेशन किराए के कार्यालय में चलते हैं प्रदेश में 51 पुलिस स्टेशन ऐसे हैं जहाँ फोन नहीं है ,17 पुलिस स्टेशन ऐसे हैं जहाँ वायरलेस नहीं है।ऐसे में कोई भी यह कहने में थोड़ा भी देर नही लगाता की पुलिस भ्रस्ट है ।इसके लिए सिर्फ पुलिस बल ही नहीं जिमेदार हैं बल्कि पूरा सरकारी तन्त्र जिम्मेदार हैं. हमारे लिए इससे अधिक शर्म कि बात क्या होगी कि आज भारत का पुलिस प्रशासन अंग्रेजों द्वारा बनाए गए सन १८६१ के पुलिस एक्ट से क्रियान्वित है ।पुलिस विभाग पर लगातार आरोप लगता रहा है कि पुलिस लोकतन्त्र की भावनाओ का सम्मान नही करती है,अंग्रेज़ो ने भारतीय क्रांतिकारियों पर नियंत्रण के लिए जो पुलिस तंत्र बनाया था आज भी पुलिस उसी पर चल रही है। 
आज भारत को संवेदनहीन पुलिस चाहिए, रास्ट्रीय सुरक्षा तथा लोकतान्त्रिक मूल्यों को बनाए रखने वाली मानवीय पुलिस चाहिए। 
                     

माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी से विनम्र अनुरोध है कि जब देश परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है जिसमें कई ऐतेहासिक निर्णय लिए जा चुके है तो ऐसे में लोकतंत्र के प्रसासनिक स्तम्भ का मूल अंग पुलिस विभाग का भी अवलोकन करते हुए मज़बूत व प्रभावी बनाने की दिशा में निर्णय लें जिससे देश की व्यवस्था सुचारू रूप से चल सके ।लेखक(आशुतोष मिश्र) स्वतंत्र पत्रकार है जो कि पुलिस विभाग के स्थिति को सालों से अध्यन कर रहा है।
नेक इरादे से आर्थिक क्रांति का साहस, प्रतिफल शून्य नोटबंदी ।
8 नवम्बर 2016 को प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने 8:15 बजे नोटबंदी की घोषणा की तो सारे भारत में भूकंप सा आ गया।मैं भी अपने भतीजी के जन्मदिन को सेलिब्रेेेट कर
रहा था तभी टीवी पर चल रहे न्यूज पर ध्यान गया। प्रधानमंत्री जी बोल रहे थे आज आधी रात से 500 और 1000 की नोट लीगल टेंडर नही रहेंगी।यह घोषणा तो कुछ लोगों के लिए युद्ध के ऐलान से भी घातक सिद्ध हुई। उनकी रातों की नींद उड़ गई। कुछ लोग होशोहवास खोते हुए जेवेलर्स के पास दौड़े व् उलटे-सीधे दामों में सोना खरीदने लगे।अगले दिन से ही बैंक व ए टी एम लोगों के स्थाई पते बन गए। लाइनें दिनों दिन भारत की बढ़ती हुई जनसंख्या को दिखानें लगीं। सरकार भी कभी लोगों को राहत देने के लिए व कभी काला धन जमा करने वालों के लिए नए नए कानून बनाती दिखी। कभी बैंक व ए टी एम से पैसे निकलवाने की सीमा घटाना व बढ़ाना व कभी पुराने रुपयों को जमा करवानें के बारे में नियम में सख्ती करना या ढील देना।

दूसरी तरफ सरकार अपने इस निर्णय को सही साबित करने में लगी रही। कभी प्रधानमंत्री व उनकी टीम लोगों को इस नोटबंदी के फायदे गिनाने में लगे रहे कभी पचास दिन का समय मांगते नजर आये। लोगों के अंदर भी बहुत भाईचारा देखने को मिला। अमीर दोस्तों को उनके गरीब नाकारा दोस्त याद आये। अमीर रिश्तेदारों को अपने गरीब रिश्तेदारों के महत्व का एहसास होने लगा। अमीर बेटे की गरीब माँ का बैंक अकॉउंट जो की पिता की मौत के बाद मर चुका था अचानक जिन्दा हो गया। ऐसा लगा मानों पूरी मानवता जिन्दा हो गई।जनता में भी एक आस् जागी की शायद अब हमारे खाते में भी कोई 2 से 4 लाख जमा करने को दे देगा ,मोदी जी ने उसके पहले ही जन धन अकॉउंट ओपेन करवाया था तो लोगों को लगा की शायद मोदी जी जो काला धन पकड़े उसे जनधन अकॉउंट में ट्रान्सफर कर दे वैसे भी 2014 लोकसभा चुनाव के पहले मोदी 15 लाख का न्योता भी दे चुके थे ।


भारतीय जनता उस कड़कड़ाती ठंड में लाइनों में थी ,कुछ की उसी लाइनों में तबियत भी ख़राब हो रही थी ,कुछ की तो मौत भी हुई ,कुछ को तो पुलिस की लाठिया भी खानी पड़ी।इतना ही नही कुछ का जन्म भी उसी लाइनों में हो गया ।मंज़र ऐसा था कि लोग हलकान और परेशान थे ।पर ये वो लोग थे जो अपनी खून और पसीने से ,अपने पति के पॉकेट से एक एक रुपये को जोड़कर इकट्ठा किये थे ,जबकि वही दूसरी तरफ एक ऐसा समुदाय भी देश में था जो करोङो और अरबों का हेराफेरी कर रहा था ।कभी बैंक कर्मचारियों के माध्यम से तो कभी बड़े नेता जी के सहयोग से ।सरकार की मंशा के विपरीत भ्रष्टाचार का बोलबाला चलता रहा ,गरीब लाइनों में हलकान था तो वही पूँजीपति भ्रष्टाचारी लाल और पीले नोट को ग़ुलाबी करते रहे ।जिसका नतीजा रहा कि मोदी जी के बयानों का गुब्बारा पिचक कर रह गया जिसमें उन्होंने आतंकवादियों ,नाकक्सलियों ,भ्रस्तचारियों की कमर तोड़ने का मंशा पाल रखी थी ।


भारत की अर्थव्यवस्था समझने में कही न कही मोदी सरकार से बड़ी भूल हुई उन्हें इस बात का थोड़ा भी बोध नही था कि भारत में अर्थव्यवस्था के दो सिस्टम चलते है जो एक दूसरे के समान्तर है ।एक वो जो बैंकिंग प्रणाली से विशुद्ध रूप दूर है और एक वो जो बैंकिंग प्रणाली के अनुरूप चलते है ।जो बैंकिग प्रणाली में है उनका तो सरकार लेखा जोखा रख सकती है पर उनका लेख जोखा रख पाना मुश्किल है जो रोज कमाते और रोज खाते है जिनकी संख्या भी अधिक है ।इसी का नतीजा रहा की रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को न तो ये पता था कि देश में ब्लैक मनी कितनी थी और नोटबंदी में कितना रिटर्न हुई।

नोटबंदी से सबसे ज्यादा नुक़सान अगर किसी सेक्टर को हुआ तो वो था रीयल स्टेट सेक्टर जो की पूरी तरह से ध्वस्त होने के कगार पर आ कर खड़ा हो गया ।जिस सेक्टर में आज भी लेनदेन हद तक नगदी में होता हो वो भला नोटबंदी में इतना नगद धन कहा से लाते।छोटे मोटे विल्डरों का पूरा बिजनेस ही ब्लैक मनी पर व नगद लेनदेन पर टिका था ।जिसका नतीजा रहा की ऐसे विल्डर बाज़ार से ही ग़ायब हो गये ,जिसकी वजह से मज़दूरों को काम का लाला पड़ गया ।एक तरफ़ बैंको की लाइन दूसरी तरफ़ काम का न मिलना मज़दूरों के लिए नोटबंदी एक अभिशाप साबित हुई।

नोटबंदी से सबसे अधिक लाभ किसी सेक्टर को हुआ तो वह था मीडिया सेक्टर जहाँ हमेशा से ब्लैक मनी को संग्रहीत किया जाता रहा है ।एक तरफ़ जहाँ मीडिया का पॉवर दिखा कर सिस्टम में फेरबदल कर दिया जाता है वही अपनी पहुँच का फ़ायदा उठाते हुए नोटबंदी में भी मीडिया के लोग ब्लैक को व्हाइट करते और करवाते दिखे ।जिसके लिए कही न कही सरकार की भी सहमति थी।

नोटबंदी से एक बात साफ थी की सरकार की मंशा ग़लत नही थी ,सरकार का मानना था कि ज्यादा ब्लैकमनी 500 और 1000 के नोट के रूप में ही संग्रहीत की गयी होंगी ।जिसका उपयोग नक्सलवाद और आतंकवाद प्रयोजन में किया जाता होगा जो की सही भी था ।इसके साथ -साथ देश में इन बड़ी नोट का डुप्लीकेट नोट भी बाज़ार में उपलब्ध हो गयी थी ,जिसको खत्म करना भी जरूरी था जो की हद तक नष्ट करने में सरकार कामयाब हुई ।नोटबंदी के पहले सरकार यह आंकड़ा लगाने में भी असमर्थ थी की देश के ख़ज़ाने में कितना धन किस रूप में है ,जो कि नोटबंदी के बाद साफ हो गया।मोदी सरकार को इस बात का भी पता चल गया की हमारे देश का सिस्टम कैसा है ।सबसे बड़ी बात नोटबंदी से यह रहा कि ब्लैकमनी का संग्रहण करने वालों और भ्रष्ट लोगों को एक संदेश देने में सरकार जरूर कामयाब रही की कभी भी सरकार 8 नवम्बर दोहरा सकती है ।

यह पूरा लेख लेखक का अपना विचार है न कि किसी संस्था का आंकड़ा जिसको क्लेम किया जा सके।
लेखक 
आशुतोष मिश्र (स्वतंत्र पत्रकार)
स्वयं सेवक (नालासोपारा पश्चिम)





Sunday, July 7, 2019

तीन तलाक़

                                 तीन तलाक़                               
तीन तलाक़ को समझने से पहले हमें निक़ाह को समझना जरूरी है ।मुस्लिम समाज में कोई भी पुरुष किसी भी महिला के साथ तभी सम्बन्ध स्थापित कर सकता है, जब वह पुरुष उस महिला के साथ निक़ाह स्थापित करे । मुस्लिम समाज में निक़ाह के अपने क़ायदे कानून होते है, जिसको हम साधारण भाषा में समझौता कह सकते है।जिसमें पुरुष को निक़ाह से पहले समझौते के रूप में मेहर राशि देने की घोषणा करनी पड़ती और सम्बन्ध स्थापित होने से पहले उस मेहर की रक़म को चुकाना भी आवश्यक है ।जिसके बाद अपने वैवाहिक जीवन की जिम्मेदारियों को उठाने की कसम भी खानी पड़ती है।यहाँ तक की विधि विधान में पूरे देश की सहमति रही है ,जिसको लेकर क़ानून भी इजाज़त देता है।

परन्तु कुछ रूढ़िवादी ,विध्वंशक मुश्लिम समाज के कठमुल्लों की माने जो शरियत शब्द कोआगे करके अपनी मनमानी करते है ,जिनके अनुसार आगे चलकर यदि किसी आपसी वैचारिक मतभेद या फिर किसी भी कारणवश वह पुरुष अपनी पत्नी को किसी भी माध्यम से चाहे वो मोबाइल पर मैसेज भेज कर या फिर स्वयं तीन बार तलाक बोल कर या लिख कर, अपनी पत्नी को और स्वयं को उस वैवाहिक संबंध से किसी भी समय अलग कर सकता है। इसे ही तीन तलाक कहा जाता है यह तलाक़ पति पत्नी दोनों को मानना पड़ेगा।सवाल यहाँ यह उठता है कि जब निक़ाह एक समझौता है तो तलाक़ लेने का अधिकार किसी एक पक्ष को कैसे ?,जब निक़ाह के समय वकील ,पक्षकार ,समाज का रहना जरूरी तो तीन तलाक़ के समय किसी एक का फ़रमान मान्य कैसे?,वैवाहिक जीवन की जिम्मेदारी का कसम खाने वाला एक महिला को बिना उसके मर्ज़ी के लाचार बेवश कैसे छोड़ सकता है ?।कई ऐसे सवाल है जो तीन तलाक़ जैसे वहैयात फ़रमान को असंबैधानिक नही क़ानून विरोधी घोषित करते है।                               
वैसे तो देश को आज़ाद हुए 72वर्ष होने को है पर देश की एक बड़ी आवादी जो की 25 करोड़ के किसी समुदाय की अहम हिस्सा को लगातार हमारी सरकारें ,हमारा समाज नजरअंदाज करता रहा ।क्योंकि राजनैतिक पार्टियों को उस 25 करोड़ के समुदाय में अपना विशेष वोट बैंक दिखता रहा।पुरुष प्रधान मानसिकता महिलाओं का दोहन करती रही ।धार्मिक मुद्दा व शरीयत का उलाहना देते हुए कठमुल्लों ने अपनी हिटलर शाही लगातार उन बेवस ,लाचार महिलाओं पर थोपी ।जबकि समय -समय पर कुछ साहसी महिलाओं ने इसका विरोध भी किया जिसमें शाहबानों का मामला कभी तूल पकड़ा ,लगातार हमारे देश की न्यायलयों में इस कुरीति को क़ानून विरोधी भी सबित किया गया पर वोट की राजनीति और पुरुष प्रधान मानसिकता ने 2014   से पहले इस कुरीति के ख़िलाफ़ न तो किसी को खड़ा होने दिया और न ही इसे खत्म होने दिया ।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा था " जब जब होई धरम की हानि, बारहि असुर अधम अभिमानी, तब तक धर प्रभू विविध शरीरा, हरहि दयानिधि सच्जन पीड़ा"।समय था 2014 का जब नरेन्द्रमोदी की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी की प्रचंड बहुमत वाली सरकार बनी । सरकार बनते ही कई प्रमुख मुद्दे देश के पटल रखे गए जिसमें तीन तलाक़ एक विशेष मुद्दा रहा।71 वर्षों में पहलीबार किसी सरकार ने मानवता और इस कुरीति की वजह से हो रहे अन्याय को समझा और इससे निज़ात के लिए  देश के संविधान में क़ानून की आवश्यकता महशुस की जिसके बारे में देश के राजनैतिकों को वर्षों पहले सोचने की आवश्यकता थी ।                 

जब जागों तभी सवेरा को तर्ज रखते हुए मोदी सरकार ने दिसंबर 2017 में तीन तलाक़ को रोकने के क़ानून प्रस्तावित किया जिसमें तमाम प्रावधान किये ।प्रस्तावित कानून में एक बार में तीन तलाक या 'तलाक ए बिद्दत' पर लागू होगा और यह पीड़िता को अपने तथा नाबालिग बच्चों के लिए गुजारा भत्ता मांगने के लिए मजिस्ट्रेट से गुहार लगाने की शक्ति देगा. इसके तहत पीड़ित महिला मजिस्ट्रेट से नाबालिग बच्चों के संरक्षण का भी अनुरोध कर सकती है और मजिस्ट्रेट इस मुद्दे पर अंतिम फैसला करेंगे.मसौदा कानून के तहत, किसी भी तरह का तीन तलाक (बोलकर, लिखकर या ईमेल, एसएमएस और व्हाट्सएप जैसे इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से) गैरकानूनी होगा. मसौदा कानून के अनुसार, एक बार में तीन तलाक गैरकानूनी और शून्य होगा और ऐसा करने वाले पति को तीन साल के कारावास की सजा हो सकती है. यह गैर-जमानती और संज्ञेय अपराध होगा. प्रस्तावित कानून जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में लागू होना है.इसके तहत सज़ा का भी प्रावधान किया गया । एक बार फिर पुरुष प्रधान मानसिकता और राजनैतिक रोटी सेकने वाली मानसिकता आड़े आयी और समाज में जगह -जगह शरीयत की दुहाई देकर कुछ कठमुल्ले और राजनैतिकों ने विधवा विलाप करना शुरू कर दिया ।कुछ का कहना था कि ये क़ानून धर्म के ख़िलाफ़ है तो कुछ कहना था कि मोदी सरकार अपने राजनीतिक लाभ के लिए क़ानून प्रस्तावित किया ।किसी कठमुल्ले ने ये नही कहा कि समाज के एक वर्ग के लिए यह क़ानून बहुत महत्वपूर्ण है।अगर कानून में कुछ खामियां थी जैसा की हो सकता है पर ये भी संभव था की भविष्य में उसे भी दुरुस्त किया जा सकता था।सुप्रीमकोर्ट ने भी अगस्त 2017 में तीन तलाक़ को अवैधानिक घोषित कर दिया था ।ऐसे में मोदी सरकार ने सितंबर 2018 में तीन तलाक़ के ख़िलाफ़ अध्यादेश लाकर यह साफ़ कर दिया कि उसकी मानसिकता साफ़ है, जिसको सीतकलीन सत्र दिसंबर 2018 में संसद के दोनों सदनों से पास कराने कि चुनौती थी ।लोकसभा में तो क़ानून पास हो गया पर राज्यसभा में अटक गया।                                               
अब जबकि 2019 में एक बार पुनः मोदी सरकार प्रचंड बहुमत से सरकार में आ चुकी है तो उसकी ज़िम्मेदारी इस कुरीति पर अंकुश लगाने की दोगुनी हो जाती है ।जिससे समाज का बड़ा हिस्सा सम्मान से अपना जीवन यापन कर सके।                               

लेखक                                           
आशुतोष मिश्र (स्वतंत्र पत्रकार)     
स्वयं सेवक (यशवंत गौरव नालासोपारा पश्चिम)